Mahakumbh 2025: महाकुंभ में अब तक 7 करोड लोग कर चुके हैं स्नान, संगम तट पर यमुना नदी के किनारे एक ऐतिहासिक किला मौजूद है इस किले की भीतरी दीवार में मौजूद है अक्षय तृतीया इस अक्षय तट का लिखित इतिहास तकरीबन 400 साल पुराना है लेकिन मानता है कि यह वट वृक्ष अश्विनी है वर्तमान में यह अक्षय वटी पातालपुरी मंदिर के भीतरी अपनी फैली हुई जड़ों के साथ विराजमान है इस वर्ष का ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ पर पाषाणिक महत्व भी है.
श्री राम ने की थी महादेव की स्थापना
इतिहास कहता है कि मुस्लिम जाकर मानो से लेकर मुगल सम्राट जहांगीर तक ने इस वर्ष को नष्ट करने का प्रयास किया लेकिन हर बार यह वर्ष अपनी राख से उन्हें उत्पन्न हो गया भगवान श्री राम सीता माता और लक्ष्मण जी ने भी अपने वनवास के दौरान इस वर्ष के नीचे विश्राम किया था श्री राम ने यहां निशुल्केश्वर महादेव का जलाभिषेक किया था जिनके जल की धारा अक्षय भट्ट की जड़ तक पहुंची है और संगम में विलीन हो जाती है मानता है कि अदृश्य सरस्वती नदी भी अक्षय वट के नीचे से बहती है और श्रीवैसी संगम में मिलती है.
महाप्रलय का भी साक्षी है अक्षयवट
पुराण कथाएं दावा करती हैं कि यह वट वृक्ष सृष्टि के आरंभ के साथ ही उत्पन्न हुआ और यह हर बार होने वाली महा प्रलय के साक्षी भी है इसकी चर्चा पुराण में भी की गई है प्रयाग में पातालपुरी मंदिर वर्तमान किले के भीतर ही है और इसी में अक्षय वट भी मौजूद है यह मंदिर ऐसी माधव के नाम से भी जाना जाता है पुराण में वर्णित प्रयाग महा कथा डी आई के अंतर्गत यह उल्लेख मिलता है कि पाताल लोक के नाग और नगीनियों शेषनाग के साथ भगवान हरि और हर दोनों का एक साथ दर्शन करने के लिए इसी स्थान पर आए तथा यही उनके सचिव बनाकर निवास करने लगे.
ज्ञान का प्रतीक माना जाता है वट वृक्ष
अखंड भारत की अनेक अद्भुत धरोहरों में अक्षय वट और प्राचीन पातालपुरी मंदिर को बेहद महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है अक्षयवट का अर्थ है अविनाशी वट वृक्ष. यह नाम संस्कृत के शब्दों अक्षय (अविनाशी) और वट (बरगढ़) से बना है. पुराने के अनुसार महा प्रलय के समय जब सृष्टि जल मंगल हो जाती है और जीवन का कोई चिन्ह है नहीं होता तब भी एक वट वृक्ष बच जाता है जो जीवन को फिर से शुरू करने में सहायक होता है मार्क द श्री ऋषि को भगवान कृष्ण ने बालमुकुट के रूप में वट वृक्ष के पत्ते पर ही दर्शन दिए और बट वर्क से की आधारित शीला और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है.
माता सीता ने दिया अविनाशी होने का वरदान
अक्षयवट से जुड़ी एक अन्य पेशेंट कथा के अनुसार राजा दशरथ के निधन के बाद श्री राम पंडित दान के लिए सामग्री लेने गए थे उसे दौरान राजा दशरथ अक्षय वट पर प्रकट हुए और सीता माता से भजन मंगा माता सीता ने अक्षय वट के नीचे से रेट उठाकर पिंड बनाकर राजा दशरथ को अर्पित किया उधर जब श्री राम आए और पिंडदान करने लगे तब सीता जी ने कहा कि आपकी अनुपस्थिति में मैं पिंडदान कर दिया है श्री राम ने यह बात वृक्ष वट वृक्ष से पूछी तो उसने भी अपनी पत्तों की तरह के जरिए हामी भर की राजा दशरथ का पिंडदान हो चुका है सीता माता ने इस वृक्ष को हमेशा ही जीवित रहने का वरदान दिया. उनके स्पर्श और आशीर्वाद ने अक्षय वट को प्रयागराज का सबसे पवित्र स्थल बना दिया संगम में स्नान कर अक्षय वट के दर्शन करने से वृद्धि और मानसिक व शारीरिक कासन से मुक्ति मिलती है.
प्राचीनता का गौरव है, पातालपुरी मंदिर और अक्षयवट
पातालपुरी मंदिर एक भूमिगत मंदिर है यह मंदिर वैदिक काल से अस्तित्व में है और इसे अखंड भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है मंदिर का निर्माण एक प्राचीन काल का परिचय देता है यह 84 फीट लंबा और 49 फीट चौड़ा है मंदिर में लगभग 100 स्तंभ है जो 6 फीट ऊंचे मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में है मंदिर में धर्मराज, गणेश जी, काली माता, भगवान विष्णु, शिवलिंग, हनुमान जी, लक्ष्मण जी, सीता माता सहित उनके देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित है.
अक्षय वट को कई बार नष्ट करने की हुई कोशिश
पातालपुरी मंदिर के भीतर मौजूद दिए अक्षय वेट के हम लोग का भी शिकार हुआ सन 1575 में जब मुग़ल बादशाह अकबर प्रयाग पहुंचे तो उसे यहां की दो अंबा से संचित जमीन बहुत गहराई अकबर ने यहां आकर अस्मित खुशी महसूस की और फिर उसने इस स्थान पर एक कील बनाने का विचार किया यमुना नदी के किनारे किला बनने हेतु उसने प्राचीन पातालपुरी मंदिर को भी किले के भीतर ही समेट लिया और इस तरह यह अक्षय वट भी इसके भीतर हद में आ गया इस तरह अकबर ने भी किला निर्माण करते हुए इस वट वर्ष के बड़े हिस्से को नुकसान पहुंचा ऐतिहासिक साक्षी बनाते हुए की अकबर ने 1583 684 में इस किले को बनवाया था और तब ही इस वट वृक्ष की पहली भर्ती स्थल पर किले का कब्जा हो गया वरना इसके पहले इस वट वर्ष के चारों तरफ इसकी छाया में 1000 लोग आराम से बैठ सकते थे.
जहांगीर ने जलवाया, कई बार कटवाया
अकबर के बाद यह किला जहांगीर के अधीन हो गया था जहांगीर ने भी इस किले को और विस्तार देने के लिए पातालपुरी मंदिर वाले स्थान पर निर्माण करना चाहा जहां इस वट वर्ष की मौजूदगी भी थी यह बरगद का पेड़ इतना प्राचीन था कि इसकी जड़ जाता अंदर ही अंदर बहुत दूर तक फैली हुई थी और एक तरीके से पातालपुरी मंदिर को भी अपने में जकड़े हुए हैं जहांगीर को एक और बात पता चली थी जिससे वह बेहद अचरज में था उसे पता चला था कि लोग इस पेड़ से कूद कर गंगा में अपने प्राण त्याग करते हैं. असल में उसे समय के भारत में करवट काशी नाम की एक प्रथा भी प्रचलित थी इस प्रथा के मुताबिक काशी या गंगा में प्राण त्यागे जाए तो मरने के बाद स्वर्ग और मोक्ष मिलता है. प्रयाग में पातालपुरी मंदिर के पास त्रिवेणी होने के कारण यहां भी यही मान्यता थी सत्य करीब ने अपनी सखी में इस प्रथा की खूब आलोचना की है बल्कि इसलिए वह अपने अतः समय में मगहर चले गए थे.
अलबरूनी ने अक्षय वट पर क्या लिखा
फारसी विद्वान अलबरूनी जब 1017 ईस्वी में भारत आया था तब उसने भी इस प्रथा को देखकर चुकाने वाला रिएक्शन दिया था अलबरूनी अपने दस्तावेजों में दर्ज करता है कि यह संगम के पास एक बड़ा सा वृक्ष है जिसकी लंबी लंबी क्या खाए हैं यह एक वट वृक्ष है जिसे अक्षय वट कहा जाता है इस वर्ष पर चढ़कर ब्राह्मण और क्षत्रिय गंगा में कूदते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं इसके दोनों तरफ मानव कंकाल और हड्डियों के अश्व सोच दिखते हैं कई लोग तो खुद को गंगा में डूबने के लिए एक व्यक्ति भी साथ लेकर जाते हैं.
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